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शिक्षा – GPS या कम्पास?

हमारी औपचारिक शिक्षा एक GPS की तरह काम करती है जो शिक्षार्थी को एक बँधी-बँधाई दुनिया में कदम-कदम पर रास्ता बताती हुई चलती है. 19वीं और 20वीं सदी में GPS वाली शिक्षा ठीक-ठाक काम कर गई. उस समय आप किसी एक क्षेत्र में ज्ञान का भंडार जमा कर लेते थे या कहिए कि डिग्रियों का थाक लगा लेते थे और चूँकि उन दिनों अधिकतर क्षेत्रों में ज्ञान हासिल करने की दर बहुत कम थी, इसलिए यह शिक्षा पद्धति काम कर गई.

आज हालात बदल गए हैं. 21वीं सदी में ज्ञान का जो विस्फोट हुआ है उससे हर क्षण शिक्षा का नक्शा बदल रहा है. जब इतनी तेज़ी से सबकुछ बदल रहा हो तब कोई GPS कारगर नहीं होता. सीखनेवालों को ध्रुव तारे की तरह का एक कंपास चाहिए. एक अंदरूनी कंपास जो सीखनेवाले को स्वतन्त्र और गहरा सोचने को प्रेरित करे और जो उसे आत्‍म-निरीक्षण करने पर मजबूर करे कि क्या वो केवल कमाने के लिए सीख रहा है या सार्थक, आनंदपूर्ण जीवन जीने के लिए – इसके लिए आजीवन जिज्ञासा और सीखने की ललक बरकरार रखना अनिवार्य है.

ऐसी संभावना अधिक नज़र आती है कि आज के विद्यार्थी अपने जीवनकाल में कई बार नौकरी नहीं अपना पेशा बदलेंगे. जबकि औपचारिक शिक्षा हद से हद उन्हें अपनी पहली नौकरी के लिए तैयार करती है. वे फले-फूलें, कुछ सार्थक कर सकें इसके लिए ज़रूरी है कि वे लगातार सीखते रहें और अपने आपको reinvent करते रहें.

यह तभी मुमकिन होगा जब वे अपने सीखने की दिशा खुद तय करने में सक्षम होंगे. उन्हें स्वनिर्देशित और स्वायत्त तरीके से सीखने की कला और उसके विज्ञान से भी परिचित होना होगा. आतंरिक प्रेरणा, भावनात्मक लचीलापन, विलम्बित संतुष्टि, विकासशील मानसिक झुकाव, धुन, नाकामयाबी को झेलना – ऐसे सभी मानसिक गुणों को भी विकसित करना होगा.

अगर निर्धारित पाठ्यक्रम वाली औपचारिक शिक्षा विद्यार्थियों को ये कौशल देने में सक्षम सिद्ध नहीं हो रही है तो विद्यार्थियों को ये कौशल और मानसिक गुण सीखने की जिम्मेदारी अपने पर लेनी होगी. अच्छी खबर यह है की आज इंटरनेट पर मुफ्त संसाधन और ऐसे गुरु जो सीखाने के लिए तत्पर हैं दोनों ही आसानी से मिल जाते है. शिक्षार्थियों में सीखने की ललक होनी चाहिए.

लेखक: कालातीत कौशल
संस्थापक, कालातीत जीवनकौशल