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सीखने की ललक और आत्म-निर्देशित शिक्षा

सीखने की ललक और आत्म-निर्देशित शिक्षा

SDSN मुंशीगंज ग्रामीण विद्यालय में कालातीत कौशल की कार्यशाला

“क्या मानव शरीर एक सुचालक है?” “क्या पत्तियाँ सुचालक हैं या कुचालक?” एक वैज्ञानिक की तरह सोचो, प्रयोग करो, और पता लगा लो! SDSN स्कूल के विद्यार्थियों ने ठीक यही किया, जब जुलाई में उन्होंने लंदन आधारित गैर-सरकारी संगठन, कालातीत जीवनकौशल के संस्थापक, अतुल पन्त, द्वारा आयोजित २१-वीं सदी के जीवनकौशल सीखने की कार्यशाला में भाग लिया.

विद्यार्थियों ने टेबलेट में भिन्न प्रकार की एनीमेशन बनाना भी सीखा और कई रोचक कहानियाँ रचीं. ऐसा कर उन्होंने न केवल जाना की टेबलेट का प्रयोग वो अपनी रचनात्मक सोच को विकसित करने के लिए किस प्रकार कर सकते हैं (२१वीं-सदी में रचनात्मक सोच एक अत्यंत आवश्यक जीवन कौशल बन गया है) उन्होंने यह भी समझा की किस प्रकार एनीमेशन पढ़ाई ज़्यादा रोचक बनाने के लिए भी प्रयोग में लाई जा सकती है.

विद्यार्थियों ने टेबलेट में वीडियो फिल्म बनाना भी सीखा और कई छोटी फिल्में बनाई जैसे अपने विद्यालय के बारे में, प्रधानाचार्य का इंटरव्यू, जीव-विज्ञानं का एक ट्यूटोरियल वीडियो इत्यादी. विद्यार्थियों ने यह भी सीखा की कैसे वो अपनी एनीमेशन या फिल्म में म्यूजिक डाल उसे और रोचक बना सकते हैं. उन्होंने कई और शिखा सम्बंधित apps की जानकारी भी हासिल की.

फिर बारी थी एक रोबोट को समझने की. उन्होंने जाना कि रोबोट में लगे अल्ट्रा-सोनिक और इंफ्रारेड सेंसर कैसे काम करते हैं और आने वाले दशकों में स्वचालित, बुद्धिमान मशीनें वैश्विक अर्थव्यवस्था का स्वरूप कैसे बदलेंगी.

छोटी कक्षा के विद्यार्थियों ने पानी की खाली बोतल में पहिये और गुब्बारा लगा गाड़ीयाँ बनायीं और प्रयोग कर जाना की उनकी गाड़ी ज़्यादा दूर (गुब्बारे में ज़्यादा हवा भर) और ज़्यादा तेज़ (दो गुब्बारे लगा) कैसे जाएगी. बड़ी कक्षाओं में यह बच्चे इसी प्रयोग के द्वारा न्यूटन के गति के तीन नियम (Newton’s Three Laws of Motion) सीख सकते हैं.

तीन दिन की कार्यशाला के दौरान प्रायोगिक प्रक्षिक्षण (hands-on learning) की विधि से विद्यार्थियों ने मज़े करते हुए बहुत कुछ सीखा.

अर्थशास्त्रियों का मानना है कि जब टेक्नोलॉजी में तेज़ प्रगति अर्थव्यवस्था का स्वरूप बदलती है, और बदलती अर्थव्यवस्था में रोज़गार के लिए आवश्यक कौशल उतनी ही तेज़ी से नहीं सीखाये जाते हैं, तो इसका परिणाम समाज में आर्थिक असामनता ही होता है. रोबोट, सेंसर, आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस, नैनो-प्रौद्योगिकी, जैव-प्रौद्योगिकी… प्रौद्योगिकी ने आज से पहले कभी भी वैश्विक परिदृश्य को इस तेज़ी से नहीं बदला है, इसीलिए Timeless Lifeskills संस्था ने मकसद साधा है – ‘भारत के ग्रामीण इलाकों के छात्रों को उन जीवन कौशल में निपुण बनाना जो कि २१वीं-सदी में सफलता और कल्याण के लिए अनिवार्य बन चुके हैं.’

यह संस्था तीन बुनियादी जीवन कौशल विकसित करने पर ध्यान देती है: ‘

  1. सीखने की ललक उत्प्रेरित करना, यानी शिक्षार्थियों की आंतरिक प्रेरणा को जागृत कर उन्हें जिज्ञासु बनाना ताकि वो स्वप्रेरित हो आजीवन सीखने के सक्षम बनें.
  2. शिक्षा में आत्म-निर्देशन, ताकी छात्र अपनी शिक्षा की जिम्मेदारी स्वयं पर लें और अपनी सोच को गहरा और स्वतन्त्र बना, आज इन्टरनेट इत्यादि पर उपलब्ध सभी संसाधनों का उपयोग कर खुद से सीखना सीखें.
  3. आत्म-बोध की तरफ रुझान विकसित करना ताकी युवा समझ पायें की मानव का जीवन सागर की लहरों पर तो वश नहीं परंतु उसका अपनी नाँव पर पूरा नियंत्रण है, इसलिए किसी भी परिस्थिति में, शारीरिक एवं मानसिक रूप से अपनी नाँव संभाल, वो आनंदमय और सार्थक जीवन व्यतीत कर सकते हैं.

इन तीन बुनियादी जीवन कौशल के अलावा, केवल इम्तेहान में ज़्यादा नंबर लाने के लिए रट्टा लगाने वाली पढ़ाई के विपरीत विद्यालय में भिन्न विषयों के अध्धयन के लिए आवश्यक सोच को सीखना (जैसे एक वैज्ञानिक की सोच एक इतिहासकार की सोच से अलग होती है और एक लेखक इन दोनों विशेषज्ञों से अलग तरह से सोचता है), समझ के साथ पड़ना, गहरी, स्वतंत्र और रचनात्मक सोच, जटिल समस्याएं सुलझा पाने की क्षमता, विवेकपूर्ण निर्णय लेने की क्षमता, जोखिम उठाने की क्षमता, अनुकूलनशीलता और संवेदनशील सहकार्यता, यह कुछ और कालातीत जीवनकौशल हैं जिनको विकसित करने पर टाइमलेस लाइफस्किल्स ध्यान देती है.

इन सभी जीवनकौशल में निपुणता विद्यार्थियों को तेज़ी से बदलते भविष्य की चुनौतियों को सुनहरे अवसर में बदलने के योग्य बनाती है.

शिक्षा – GPS या कम्पास?

हमारी औपचारिक शिक्षा एक GPS की तरह काम करती है जो शिक्षार्थी को एक बँधी-बँधाई दुनिया में कदम-कदम पर रास्ता बताती हुई चलती है. 19वीं और 20वीं सदी में GPS वाली शिक्षा ठीक-ठाक काम कर गई. उस समय आप किसी एक क्षेत्र में ज्ञान का भंडार जमा कर लेते थे या कहिए कि डिग्रियों का थाक लगा लेते थे और चूँकि उन दिनों अधिकतर क्षेत्रों में ज्ञान हासिल करने की दर बहुत कम थी, इसलिए यह शिक्षा पद्धति काम कर गई.

आज हालात बदल गए हैं. 21वीं सदी में ज्ञान का जो विस्फोट हुआ है उससे हर क्षण शिक्षा का नक्शा बदल रहा है. जब इतनी तेज़ी से सबकुछ बदल रहा हो तब कोई GPS कारगर नहीं होता. सीखनेवालों को ध्रुव तारे की तरह का एक कंपास चाहिए. एक अंदरूनी कंपास जो सीखनेवाले को स्वतन्त्र और गहरा सोचने को प्रेरित करे और जो उसे आत्‍म-निरीक्षण करने पर मजबूर करे कि क्या वो केवल कमाने के लिए सीख रहा है या सार्थक, आनंदपूर्ण जीवन जीने के लिए – इसके लिए आजीवन जिज्ञासा और सीखने की ललक बरकरार रखना अनिवार्य है.

ऐसी संभावना अधिक नज़र आती है कि आज के विद्यार्थी अपने जीवनकाल में कई बार नौकरी नहीं अपना पेशा बदलेंगे. जबकि औपचारिक शिक्षा हद से हद उन्हें अपनी पहली नौकरी के लिए तैयार करती है. वे फले-फूलें, कुछ सार्थक कर सकें इसके लिए ज़रूरी है कि वे लगातार सीखते रहें और अपने आपको reinvent करते रहें.

यह तभी मुमकिन होगा जब वे अपने सीखने की दिशा खुद तय करने में सक्षम होंगे. उन्हें स्वनिर्देशित और स्वायत्त तरीके से सीखने की कला और उसके विज्ञान से भी परिचित होना होगा. आतंरिक प्रेरणा, भावनात्मक लचीलापन, विलम्बित संतुष्टि, विकासशील मानसिक झुकाव, धुन, नाकामयाबी को झेलना – ऐसे सभी मानसिक गुणों को भी विकसित करना होगा.

अगर निर्धारित पाठ्यक्रम वाली औपचारिक शिक्षा विद्यार्थियों को ये कौशल देने में सक्षम सिद्ध नहीं हो रही है तो विद्यार्थियों को ये कौशल और मानसिक गुण सीखने की जिम्मेदारी अपने पर लेनी होगी. अच्छी खबर यह है की आज इंटरनेट पर मुफ्त संसाधन और ऐसे गुरु जो सीखाने के लिए तत्पर हैं दोनों ही आसानी से मिल जाते है. शिक्षार्थियों में सीखने की ललक होनी चाहिए.

खेल-खेल में टेक्नोलॉजी और विज्ञान सीखना

खेल-खेल में टेक्नोलॉजी और विज्ञान सीखना

Aarohi school students building electrical circuits

केवल परीक्षाओं के लिए सीखने से कहीं बेहतर है खेल-खेल में सीखना. सीखने की ये विधि कलप्ना और रचनात्मक सोच को विकसित करती है. कल्पना-शक्ति और रचनात्मक सोच २१वीं सदी में सफलता के लिए अनिवार्य जीवनकौशल हैं.

सीखने की ये विधि ध्यान में रखते हुए Timeless Lifeskills Foundation में इलेक्ट्रॉनिक्स सीखने का एक पाठ्यक्रम रचा है. अलग-अलग ऑनलाइन संसाधनों का विश्लेषण कर हमनें कुछ प्रयोग और प्रोजेक्ट्स का चयन किया है जिनको करने से विद्यार्थियों की विज्ञान, खासकर इलेक्ट्रॉनिक्स, में रूचि बढ़ेगी.

हमारे पाठ्यक्रम में चौथी और पांचवीं के छात्र बहुत सरल रोबॉट का निर्माण करते हैं. ये सरल मशीनें कम्पन वाली मोटर और 3-वोल्ट की बटन बैटरी से बनती हैं. कम्पन की वजह से ये नाचती हैं और मस्त चित्र बनाती हैं. फिर चौथी और पांचवीं के छात्र नमक में गुंथे आटे से, जो एक सुचालक (conductor) का काम करता है, 3D आकृत्यियों का निर्माण करते हैं और इन आकृतियों में LED लाइट लगा कर उन्हें और सुंदर बनाते हैं.

छठी से आठवीं के छात्र इलेक्ट्रॉनिक पुर्ज़े जैसे बल्ब, मोटर, स्विच आदि से सरल परिपथ (circuit) का निर्माण करना सीख, पतले ताम्बे के टेप और LED से सुन्दर बधाई पत्र बनाते हैं, जिसको ‘पेपर-सर्किट’ कहते हैं. फिर ये छात्र चार भिन्न रोबॉट का निर्माण करते हैं – लाइन-ट्रैकिंग (काली रेखा पर चलने वाला रोबॉट), लाइट-सेंसिंग (प्रकाश का पीछा करने वाला रोबॉट), मोशन-सेंसिंग (किसी हिलती चीज़ से आकर्षित रोबॉट) और ऑब्स्टेकल-अवोइडिंग (रुकावटों से बचते हुए चलने वाला रोबॉट). इस उम्र के छात्र बिना माइक्रो-कंट्रोलर वाले रोबॉट का निर्माण करते हैं यानि इन रोबॉट में कंप्यूटर-चिप नहीं लगी होगी इसलिए इन्हेँ प्रोग्राम नहीं किया जा सकता.

छठी से आठवीं के विद्यार्थियों को कंप्यूटर प्रोग्रामिंग सीखाने के लिए हम MIT Media Lab द्वारा निर्मित निशुल्क प्रोग्राम Scratch का प्रयोग करते हैं. Scratch में सरल से मुश्किल प्रोग्रामिंग सीखाने के लिए हमनें 50 से ज़्यादा हिंदी वीडियो टुटोरिअल बनाये हैं जो हमारे YouTube चैनल पर निशुल्क उपलब्ध हैं.

नौंवीं से बारहवीं के छात्र ब्रेडबोर्ड का प्रयोग कर जटिल परिपथ का निर्माण करना सीखते हैं. ये छात्र micro:bit और Arduino माइक्रो-कंट्रोलर पर आधारित रोबॉट और Internet of Things के प्रोजेक्ट्स बनाते हैं और विज्ञानं के अन्य प्रयोग करना सीखते हैं.

हमारे अन्य clubs में छात्र app making, game design, website design, animation, movie making – इन पर प्रोजेक्ट्स बनाते हैं क्योंकि इससे रचनात्मक सोच, planning, decision-making, सहकार्यता जैसे जीवनकौशल तो विद्यार्थी सीखते ही हैं साथ ही वे नयी अर्थव्यवस्था में नियोजनीयता से सम्बंधित नए व्यवसायिक कौशल (Vocational Skills 2.0) भी सीखते हैं।

Young students in a village shooting a special effects scene with green screen

ग्रामीण विद्यालयों में जो कार्यशालाएं हम चलाते हैं इनका मुख्य उद्देश्य है इन विद्यालयों में भिन्न छात्र-संघ (Student Clubs) शुरू करना. ये Clubs छात्रों को अग्रणी टेक्नोलॉजी से अवगत कराते हैं और गणित और विज्ञान में रूचि उत्पन्न करते हैं.

हमारे अनुभव में ग्रामीण विद्यालयों में भी अत्यधिक ध्यान निर्धारित पाठ्क्रम पूरा करने और इम्तेहान में ज़्यादा नंबर लाने पर दिया जाने लगा है. मगर आज की दुनिया में सफलता के लिए अच्छे अंक लाना पर्याप्त नहीं है. २१वीं सदी में सफलता के लिए अपेक्षित शिक्षा को हमें DNA की उपमा से समझना चाहिए. जैसे DNA की संरचना में दो सूत्र होते हैं वैसे ही औपचारिक शिक्षा, निर्धारित पाठ्यक्रम जिसका एक अंश है, शिक्षा के DNA का एक सूत्र है और अनौपचारिक रूप से रचनात्मक सोच, आत्म-निर्देशित शिक्षा, जटिल समस्याओं के नवीन समाधान ढूंढ पाना इत्यादि कौशल शिक्षा के DNA का दूसरा सूत्र है. जब हम शिक्षा को इस दृष्टिकोण से देखेंगे तभी शिक्षा के इन दो सूत्रों में घर्षण कम होगा.

ग्रामीण विद्यालयों में टेक्नोलॉजी क्लब्स शुरू करना मूढ़ प्रस्ताव नहीं है. जिस दुनिया में ये बच्चे बड़े होंगे और रोज़गार तलाशेंगे अग्रणी टेक्नोलॉजी, विज्ञान और गणित की समझ बहुत लाभदायक सिद्ध होगी. इस तरह के क्लब्स शुरू करना आज ना तो मुश्किल है ना बहुत महंगा. कई ऑनलाइन दुकाने रोबॉट और अन्य प्रकार के इलेक्ट्रॉनिक्स पुर्जे बेच रहीं हैं और एक इलेक्ट्रॉनिक्स क्लब जिसमें टेक्नोलॉजी और विज्ञान से सम्बंधित काफी सारे प्रयोग और प्रोजेक्ट्स किये जा सकते हैं 15-20 हज़ार रूपये की लागत में शुरू किया जा सकता है.

Thumbnails from Kalateet Kaushal YouTube channel
हमारे YouTube चैनल के कुछ वीडियो टुटोरिअल

परन्तु इस प्रस्ताव में कुछ चुनौतियां ज़रूर हैं. जैसे एक प्रशिक्षक को ढूँढना जो इस तरह के क्लब्स को चलाने के बारे में बहुत उत्साहित हो. कई अध्यापकों को लगता है कि इस तरह की गतिविधियाँ उनपर अतिरिक्त बोझ हैं जिनको करने से उनको कोई आर्थिक लाभ नहीं होगा. कुछ अध्यापकों को, टेक्नोलॉजी पर कोई औपचारिक प्रशिक्षण न मिलने के कारण, ऐसी गतिविधियाँ शुरू करने में डर लगता है. पर हमारे अनुभव में ऐसे प्रशिक्षक मिल जाते हैं जिनको कुछ नया करने का उत्साह होता है और जो छात्रों के साथ ऐसे क्लब्स सह-अन्वेषक (co-explorer) की तरह शुरू करने के इच्छुक भी भी होते हैं. ये प्रशिक्षक अध्यापक हो सकते हैं, या वरिष्ठ छात्र, या ग्राम के युवा जिनको खुद भी प्रोजेक्ट्स और प्रयोग करके अनौपचारिक रूप में सीखने में मज़ा आता है.

एक और चुनौती है सीखने के संसाधनो की उपलभ्दि क्योंकि अनौपचारिक शिक्षा के लिए ऑनलाइन संसाधन बहुत ज़रूरी हैं. आज इलेक्ट्रॉनिक्स और टेक्नोलॉजी के विषयों पर ऑनलाइन कई ट्यूटोरियल, वीडियो आदि मिल जाते हैं. समस्या है कि यह संसाधन अधिकतर अंग्रेज़ी में उपलब्ध हैं. इस समस्या को सुलझाने के लिए हमारा पूरा प्रयास है हिंदी में ट्यूटोरियल और वीडियो बनाने का और WhatsApp, Facebook जैसे सोशल मीडिया के ज़रिये छात्रों का मार्ग दर्शन करने का.

हमें लगता है छात्र-संघ (STEM 2.0 Clubs) शुरू कर, खेल-खेल में, टेक्नोलॉजी और विज्ञान सीखने का ये प्रयोग और २१वीं सदी के अनुकूल शिक्षा प्रदान करने के कई और प्रयोग अत्यंत आवश्यक हैं ताकि हम तेज़ी से बदलती हुई सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था के लिए छात्रों को तैयार कर पायें.

इस जीवन में कुछ अविश्वसनीय कर डालो

कुछ साल पहले मेरे बेटे को अपने स्कूल से एक दस्तावेज़ मिला जिसमे विषयों की एक सूची थी. जी.सी.एस.सी. परीक्षा (class 10 Board exam के बराबर) के लिए उसे इस सूची से कुछ विषय चुनने थे. मैंने उससे पूछा कि दिए हुए विकल्पों में किस आधार या मानकों पर वह निर्धारित करेगा कि कौनसा विषय ले? पलक झपकते ही उसने जवाब दिया, “जो विषय मुझे पसंद हैं और जिन विषयों में मैं अच्छा हूँ.”

उसके मानकों से मैं सहमत था और मैंने सुझाव दिया कि इनके अलावा एक और मानक भी है जिसको उसे ध्यान मैं रखना चाहिए. इस तीसरे मानक के तीन पहलु हैं:

निकट भविष्य के लिए उसे ध्यान में रखना चाहिए कि विश्वविद्यालय में उसे किस विषय का अध्ध्यन करना है? होशियारी इसी में है कि वह उन विषयों का चयन करे जो उस विषविद्यालय कि उपाधि (degree) के लिए अनिवार्य हैं.

यह बात ज़रूर है कि अब ऐसे विकल्प उभर रहे हैं, जैसे ऑनलाइन पाठ्यक्रम ‘मूक’ (MOOC – Massive Open Online Course), जिनकी सहायता से शिक्षार्थी विश्वविद्यालय जाए बिना एक विषय में गहरी जानकारी और विकल्प उपाधि (qualification) पा सकता है. अगर एक विद्यार्थी भारी कर्ज़ा लेकर विश्वविद्यालय कि उपाधि ले रहा है तो उसे इन विकल्पों का पता लगाना चाहिए.

विश्वविद्यालय में वो क्या विषय चुने इसका मुख्य मानक होना चाहिए उस विषय में उसकी गहरी रूचि. पर व्याहवारिक होते हुए उसे थोड़ा यह भी सोच लेना चाहिए कि मध्यम अवधि, यानि कुछ दशकों में, कौनसे विषय रोज़गार या उद्यम ज़्यादा अवसर प्रदान करने की सम्भावना रखते हैं. जिस प्रकार स्वचालित बुद्धिमान मशीनें, कम्प्यूटरीकरण, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस एवं और ऐसी प्रौद्योगिकी प्रवृत्तियाँ उभर रहीं हैं भविष्य की अर्थव्यवस्था में बदलाव निश्चित है और बदलती हुई अर्थव्यवस्था में रोज़गार एवं उद्यम में बदलाव भी स्वाभाविक ही है. इस कारण कुछ विषयों का अध्यन और उनमें गहरा ज्ञान होना एक व्यक्ति की नियोजनीयता को ज़्यादा बेहतर बना देता है.

स्कूल से जो दस्तावेज मेरे बेटे को मिला था उसमें विश्वविद्यालय की भिन्न उपाधियों की सूची भी थी. हमने हर उपाधि (degree) को देखा और चर्चा की कि वह उपाधि आगे चलकर कौनसे व्यवसाय में प्रवेश संभव करती है. मैंने अपने बेटे को इस बात पर भी आगाह किया कि तकनीकी उन्नति और बदलती अर्थव्यवस्था आज के बहुत सारे व्यवसायों को निकट भविष्य में लुप्त कर देगी. पर साथ ही ऐसा भी है कि कई सारे नवीन व्यवसाय भी उभरेंगे जिनकी आज हम कल्पना भी नहीं कर सकते.

मेरे सुझाये तीसरे मानक का एक दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य भी है – ‘अपनी क्षमता अनुसार अपने जीवन में कुछ उल्लेखनीय करने का ढृढ़ संकल्प’.

आजकल अधिकतर लोग केवल पैसा कमाने के लिए ही पड़ते हैं. विश्वविद्यालय की उपाधि का चयन भविष्य में अधिक वेतन कमाने कि क्षमता पर ज़्यादा और उस विषय में कितनी रूचि है इस बात पर कम निर्भर होता है. मैंने अपने बेटे को सलाह दी कि सामाजिक सफलता पर ध्यान न देते हुए उसे इस बात पर ज़्यादा गौर करना चाहिए कि आज की कौनसी ऐसी जटिल समस्या है जिसको सुलझाने में उसकी बहुत रूचि है या हो सकती है. यह जटिल समस्या कोई भी हो सकती है – पर्यावरण सम्बंधित, किसी बिमारी का इलाज, सामाजिक या आर्थिक मुद्दे से जुड़ी, या फिर मानव कल्याण या चेतना से सम्बंधित.

अपनी किताब ‘गुड तू ग्रेट’ में लेखक जिम कॉलिंस लिखते हैं कि एक कंपनी तब ही सर्वश्रेष्ठ बनती है जब वह यह जान जाती है कि कौनसा ऐसा क्षेत्र है जिसमे वो गहरी विशेषज्ञता रखती है, जिस क्षेत्र में वो इतनी माहिर है कि उस क्षेत्र में संसार में सर्वोत्तम हो सकती है और जहाँ उसे पैसा बनाना भी आता है. यह तीन मानक कंपनियों कि सफलता के लिए ही नहीं परन्तु व्यक्तिगत सफलता के लिए भी लागू हैं.

मेरे बेटे ने अपने विषय चयन के मानकों में ‘गहरी रूचि’ और ‘माहिर होने’ की महत्वता को तो समझ ही लिया था और जब मैं उसे सामाजिक सफलता पर ज़्यादा ध्यान न देने की नसीहत दे रहा था तब मेरा यह मतलब नहीं था कि उसे पैसा नहीं कमाना चाहिए, मेरे कहने का तात्पर्य केवल इतना था कि पैसा कमाना जीवन का एक मात्र लक्ष्य नहीं होना चाहिए.

भविष्य में चाहे मेरा बेटा नौकरी करे, स्वनियोजित बने, या व्यापार करे, या कुछ और पैसा कमाने और सामाजिक सफलता के लिए सबसे ज़रूरी होगा ऐसी सेवा या उत्पाद का सृजन करने कि क्षमता रखना जो बड़ी संख्या में लोगों के लिए उपयोगी साबित हो. इसके लिए उभरती हुई प्रवृत्तियों (emerging trends) का अंदाज़ा लगाने का हुनर आवश्यक है. पैसा वो आदमी कमाता है जिसे उभरती हुई प्रवृत्तियों कि नब्ज़ समझ आती है, बिलकुल वैसे ही जैसे फुटबॉल में गोल वह खिलाड़ी करता है जिसे पता होता है कि गेंद कहाँ जाने वाली है, न कि वह खिलाड़ी जो देख रहा होता है कि गेंद कहाँ है या कहाँ थी!

पर सबसे महत्वपूर्ण है ‘गहरी रूचि’, ‘कौशल’ और ‘पैसा कमाने’ के जो तीन घेरे हैं उनको ‘अपने जीवन में, अपनी क्षमतानुसार, कुछ अविश्वसनीय करने का दृढ़ संकल्प’ के बड़े घेरे में डालना. सफल जीवन का सबसे महत्वपूर्ण मानक यह तीसरा बड़ा घेरा ही है. बाकी तीन छोटे घेरे इस पर ही आधारित होने चाहिए.

आगे आने वाले सालों में जब मेरा बेटा आत्मविश्लेषण कर रहा होगा कि उसके लिए ‘उल्लेखनीय’ जीवन लक्ष्य क्या है उस अन्वेषण के लिए मेरी शुबकामनाएं और उससे मैं कठोपनिषद् का यह वाक्यांश साझा करना चाहूँगा “उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत” – उठो, जागो, और ध्येय की प्राप्ति तक रूको मत.